खेचरी मुद्राग्रन्थों में अनेक योग मुद्राओं का वर्णन है। इनमें से एक मुद्रा है खेचरी।
यह मुद्राओं में सर्वश्रेष्ठ है। इसमें जीभ को मोड़कर, तालु के पीछे ,ऊपर की ओर स्थित विवर में जीभ के अग्र भाग को लगाया जाता है। हमारे ब्रह्मरन्ध्र से एक रस 24 घन्टे टपकता है जिसे अमृत भी कहा जाता है, जो हमारी नाभि में स्थित अग्नि में जाकर नष्ट हो जाता है।
खेचरी मुद्रा द्वारा इस रस का पान किया जाता है। जो योगी 6 महीने निरन्तर इस मुद्रा का अभ्यास करता है, वह अपनी इच्छा से शरीर का त्याग करता है। किसी भी विष का प्रभाव उसके शरीर पर नहीं होता। हिंसक जानवर उसको हानि नहीं पहुचाते। इससे रसानन्द समाधि का लाभ होता है, जो शीघ्र ही सहज समाधि में बदल जाता है। अनेक विभूतियाँ ऐसे योगी को प्राप्त हो जाती हैं। चलते समय लगता है कि शरीर, जमीन से ऊपर चल रहा है अर्थात् शरीर बहुत हल्का हो जाता है। इस मुद्रा को करने के लिए अनेक गुरु छेदन का उपयोग करते हैं। छेदन में जिह्वा के नीचे स्थित तन्तु को ब्लेड से हल्का सा काट देते हैं, इसके बाद चालन- दोहन किया जाता है। छेदन की अपनी हानियाँ भी हैं। कुछ अन्य तरीके भी हैं जिससे महीने में ही खेचरी लग जाती है। जब योगी चाहे तब इस मुद्रा की सहायता से बिन भोजन पानी के भी आराम से रह सकता है। इस मुद्रा को करने के 2 से 3 घन्टे बाद तक भूख नहीं लगती। ग्रन्थों में अनेक बातें इस सम्बन्ध में कही गयी हैं, जिनमें से कुछ निम्न हैं ---
●प्रथमं लवण पश्चात् क्षारं क्षीरोपमं ततः। द्राक्षारससमं पश्चात् सुधासारमयं ततः।
- (योग रसायनम्)
खेचरी मुद्रा के समय उस रस का स्वाद पहले लवण जैसा, फिर क्षार जैसा, फिर दूध जैसा, फिर द्राक्षारस जैसा और तदुपरान्त अनुपम सुधा, रस-सा अनुभव होता है।
●आदौ लवण क्षारं च ततस्तिक्त कषायकम्। नवनीतं धृत क्षीर दधित क्रम धूनि च। द्राक्षा रसं च पीयूषं जप्यते रसनोदकम।
---( घरेण्डसंहिता)
खेचरी मुद्रा में जिव्हा को क्रमशः नमक, क्षार, तिक्त, कषाय, नवनीत, धृत, दूध, दही, द्राक्षारस, पीयूष, जल जैसे रसों की अनुभूति होती है।
●अमृतास्वादनाछेहो योगिनो दिव्यतामियात्। जरारोगविनिर्मुक्तश्चिर जीवति भूतले ।।
--- (योग रसायनम्)
भावनात्मक अमृतोपम स्वाद मिलने पर योगी के शरीर में दिव्यता आ जाती है और वह रोग तथा जीर्णता से मुक्त होकर दीर्घकाल तक जीवित रहता है।
एक योग सूत्र में खेचरी मुद्रा से अणिमादि सिद्धियों की प्राप्ति का उल्लेख है-
●तालु मूलोर्ध्वभागे महज्ज्योति विद्यतें तर्द्दशनाद् अणिमादि सिद्धिः।
तालु के ऊर्ध्व भाग में महा ज्योति स्थित है, उसके दर्शन से अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त होती है।
ब्रह्मरन्ध्र साधना की खेचरी मुद्रा प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में शिव संहिता में इस प्रकार उल्लेख मिलता है-
● ब्रह्मरंध्रे मनोदत्वा क्षणार्ध मदि तिष्ठति । सर्व पाप विनिर्युक्त स याति परमाँ गतिम्॥
अस्मिल्लीन मनोयस्य स योगी मयि लीयते। अणिमादि गुणान् भुक्तवा स्वेच्छया पुरुषोत्तमः॥
एतद् रन्ध्रज्ञान मात्रेण मर्त्यः स्सारेऽस्मिन् बल्लभो के भवेत् सः। पपान् जित्वा मुक्तिमार्गाधिकारी ज्ञानं दत्वा तारयेदद्भुतं वै॥
अर्थात्-
ब्रह्मरन्ध्र में मन लगाकर खेचरी मुद्रा की साधना करने वाला योगी आत्मनिष्ठ हो जाता है। पाप मुक्त होकर परम गति को प्राप्त करता है। इस साधना में मनोलय होने पर साधक ब्रह्मलीन हो जाता है और अणिमा आदि सिद्धियों का अधिकारी बनता है।
●न च मूर्च्छा क्षुधा तृष्णा नैव लस्यं प्रजायते। न च रोगो जरा मृत्युर्देव देहः स जायते॥
--(घेरण्ड सहिंता )
खेचरी मुद्रा की निष्णात देव देह को मूर्च्छा, क्षुधा, तृष्णा, आलस्य, रोग, जरा, मृत्यु का भय नहीं रहता।
●लवण्यं च भवेद्गात्रे समाधि जयिते ध्रुवम।
कपाल वक्त्र संयोगे रसना रस माप्नुयात।
शरीर सौंदर्यवान बनता है। समाधि का आनन्द मिलता है। रसों की अनुभूति होती है। खेचरी मुद्रा का प्रकार श्रेयस्कर है।
----- ॐ ,शिवोsहम्
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