Wednesday, 15 February 2017

*यम-नियम क्या है?

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*यम-नियम क्या है?

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कहा जा चुका है कि महर्षि पातंजलि के बताये हुए राजयोग के आठ अंग हैं ।
(1) यम
(2) नियम
(3) आसन
(4) प्राणायाम
(5) प्रत्याहार
(6) धारणा
(7)ध्यान
(8) समाधि ।
* इन आठ में प्रारम्भिक दो अंगों का महत्त्व सबसे अधिक है । इसीलिए उन्हें सबसे प्रथम स्थान दिया गया है । यम और नियम का पालन करने का अर्थ मनुष्यत्व का सवर्तोन्मुखी विकास है । योग का आरम्भ मनुष्यत्व की पूर्णता के साथ आरम्भ होता है । बिना इसके साधना का कुछ प्रयोजन नहीं ।
योग में प्रवेश करने वाले साधक के लिए यह आवश्यक है कि आत्म-कल्याण की साधना पर कदम उठाने के साथ-साथ यम-नियमों की जानकारी प्राप्त करें । उनको समझें, विचारें, मनन करें और उनको अमल में, आचरण में लाने का प्रयत्न करें ।
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*यम-नियम दोनों की सिद्धियाँ असाधारण हैं ।* महर्षि पातंजलि ने अपने योग दर्शन में बताया है कि इन दसों की साधना से महत्त्वपूर्ण ऋद्धि-सिद्धियाँ प्राप्त होती है । हमारा निज का अनुभव है कि यम-नियमों की साधना से आत्मा का सच्चा विकास होता है और उसके कारण जीवन सब प्रकार की सुख-शन्ति से परिपूर्ण हो जाता है । यम-नियम का परिपालन एक ऐसे राजमार्ग पर चल पड़ने के समान है जो सीधे गन्तव्य स्थल पर ही पहुँचाकर छोड़ता है ।
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'राजमार्ग' का अर्थ है आम-सड़क-वह रास्ता जिस पर होकर हर कोई चल सके, जिस पर चलने में सब प्रकार की सरलता, सुविधा हो, कोई विशेष कठिनाई सामने न आवे । राजयोग का भी ऐसा ही तात्पर्य है । जिस योग की साधना हर कोई कर सके, सरलतापूवर्क उसमें प्रगति कर सके और सफल हो सके, यह राजयोग है । हठयोग, कुण्डलिनी योग, लययोग, तंत्रयोग, शक्तियोग आदि उतने सरल नहीं है और न उनका अधिकार ही हर मनुष्य को है । उनके लिए विशेष तैयारी करनी पड़ती है, और विशेष प्रकार का रहन-सहन बनाना होता है, पर राजयोग में ऐसी शर्तें नहीं हैं, क्योंकि वह मनुष्य मात्र के लिए,स्त्री-पुरुष गृही-विरक्त, बाल-वृद्ध, शिक्षित-अशिक्षित सबके लिए समान रूप से उपयोगी और सरल है ।
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*योग का अर्थ है- मिलना या जुड़़ना ।*
जिस साधना द्वारा आत्मा का परमात्मा से मिलना हो सकता है,उसे योग कहा जाता है । जीव की सबसे बड़ी सफलता यह है कि वह ईश्वर को प्राप्त कर ले, छोटे से बड़ा बनने के लिए, अपूर्ण से पूर्ण होने के लिए, बन्ध से मुक्त होने के लिए, वह अतीतकाल से प्रयत्न करता आ रहा है, चौरासी लक्ष योनियों को पार करता हुआ इतना आगे बढ़ा आया है, वह यात्रा ईश्वर से मिलने के लिए है, बिछड़ा हुआ अपनी स्नेहमयी माता को ढूँढ़ रहा है, उसकी गोदी में बैठने के लिए छटपटा रहा है । उस स्वर्गीय मिलन की साधना योग है और उधर बढ़ने का सबसे साफ, सीधा, सरल जो रास्त है, उसी का नाम राजयोग है ।
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महर्षि पातंजलि ने इस योग को आठ भागों में विभाजन किया है ।
योगदर्शन के पाद 2 का 29 वाँ सूत्र है-

👉यमनियमासनप्राणायामप्रतयाहारधारणाध्यानसमाधयोङष्टावंगानि॥

अर्थात-
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा,ध्यान आैर समाधि योग के यह आठ अंग हैं ।

योग-दर्शन के पाद 2/30 में यम के सम्बन्ध में बताया गया है-
     अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचय्यार्परिग्रहायमाः।
अर्थात-
       अहिंसा,सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह पाँच यम है । पाठकों को यम शब्द से भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए,मृत्यु के देवता को भी यम कहते हैं, यहाँ उस यम से कोई तात्पर्य नहीं है यहाँ तो उपरोक्त पाँच व्रतों की एक संज्ञा नियत करके उसका नाम यम रखा गया है । यम शब्द से यहाँ उपरोक्त पाँच व्रतों का ही भाव है । आगे क्रमशः प्रत्येक के बारे में कुछ विवेचना की जाती है ।

अहिंसा

साधारण रीति से दुःख न देने को अहिंसा कहते हैं । अहिंसा का अर्थ है मारना,दुःख देना । आ अर्थ है रहित । इस प्रकार अहिंसा का अर्थ हुआ, न मारना,न सताना, दुःख न देना । ऐसे कार्य जिनके द्वारा किसी को शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुँचता हो हिंसा कहलाते हैं, इसलिए उनका करना अहिंसा व्रत पालन करने वाले के लिए त्याज्य है । महात्मा गाँधी के मतानुसार-कुविचार मात्र हिंसा है, उतावलापन हिंसा है, मिथ्याभाषण हिंसा है,द्वेष हिंसा है, किसी का बुरा चाहना हिंसा है, जिसकी दुनिया को जरूरत है उस पर कब्जा रखना भी हिंसा है, इसके अतिरिक्त किसी को मारना,कटुवचन बोलना, दिल दुःखाना, कष्ट देना तो हिंसा है ही इन सबसे बचना अहिंसा पालन कहा जायेगा
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सामान्य प्रकार से उपरोक्त पंक्तियों में अहिंसा का विवेचन हो गया पर यह अधूरा और असमाधान कारक है । कोई व्यक्ति लोगों के सम्पर्क से बिल्कुल दूर रहे और बैठे-बैठे भोजन वस्त्र की पूरी सुविधाएँ प्राप्त करता रहे तो शायद किसी हद तक ऐसी अहिंसा का पालन कर सके, पूर्ण रीति से तो तब भी नहीं कर सकता क्योंकि साँस लेने में अनेक जीव मरेंगे, पानी पीने में सूक्ष्म जल-जन्तुओं की हत्या होगी,पैर रखने में, लेटने में कुछ न कुछ जीव कुचलेंगे, शरीर और वस्त्र शुद्ध रखने में जुयें आदि मरेंगे, पेट में कभी-कभी कृमि पड़ जाते हैं, मल त्यागने पर उनकी मृत्यु हो जायेगी । स्थूल हिंसा से कुछ हद तक बच जाने पर भी उस एकान्त सेवी से पूरी अहिंसा का पालन नहीं हो सकता । तक क्या किया जाय? क्या आत्म हत्या कर लें? या योग मार्ग की पहली ही सीढ़ी पर चढ़ना असम्भव समझ कर निराश हो बैठें?
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केवल शब्दार्थ से ही अहिंसा का भाव नहीं ढूँढ़ा जा सकता, इसके लिए योगिराज कृष्ण द्वारा अर्जुन को दी हुई व्यवहारिक शिक्षा का आश्रय लेना पड़ेगा । अर्जुन देखता है कि युद्ध में इतनी अपार सेना की हत्या होगी, इतने मनुष्य मारे जायेंगे, यह हिंसा है इससे मुझे भारी पातक लगेगा, वह धनुष बाण रख कर रथ के पिछले भाग में जा बैठता है और कहता है कि, हे अच्युत! मैं थोड़े से राज्य लोभ के लिए इतना बड़ा पाप न करूँगा, इस युद्ध में मैं प्रवृति न होऊँगा । भगवान कृष्ण ने अर्जुन की इस शंका का समाधान करते हुए गीता के अठारह अध्यायों में योग का उपदेश दिया, उन्होंने अनेक तर्क,प्रमाण, सिद्धान्त और दृष्टिकोणों से उसे यह भली प्रकार समझा दिया कि कष्ट न देने मात्र को अहिंसा नहीं कहते, दुष्टों, दुराचारियों, अन्यायी, अत्याचारियों को, पापी और पाजियों को मार डालना भी अहिंसा है । जिस हिंसा से अहिंसा का जन्म होता, जिस लड़ाई से शान्ति की स्थापना होती है, जिस पाप से पुण्य का उद्भव होता है, उसमें कुछ भी अनुचित या अधर्म नहीं है ।
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कृष्ण ने अर्जुन से कहा इस मोटी बुद्धि को छोड़ और सूक्ष्म दृष्टि से विचार कर, अहिंसा की प्रतिष्ठा इसलिए नहीं है कि उससे किसी जीव का कष्ट कम होता है, कष्ट होना न होना कोई विशेष महत्त्व की बात नहीं है, क्योंकि शरीरों का तो नित्य ही नाश होता है और आत्मा अमर है, इसलिए मारने न मारने में हिंसा-अहिंसा नहीं है । अहिंसा का तात्पर्य है द्वेष रहित होना । निजी राग द्वेष से प्रेरित होकर संसार के हित-अनहित का विचार किए बिना जो कार्य किए जाते हैं वे पूर्ण हैं । यदि लोक कल्याण के लिए, धर्म की वृद्धि के लिए किसी को मारना पड़े या हिंसा करनी पड़े तो उसमें दोष नहीं हैं । अर्जुन ने भगवान के वचनों का भली प्रकार मनन किया और जब उसकी समझ में अहिंसा का वास्तविक तात्पर्य आ गया तो महाभारत में जुट पड़ा । अठारह अक्षौहिणी सेना का संहार हुआ तो भी अर्जुन को कुछ पाप न लगा ।

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एक आप्त वचन है कि-वैदिक हिंसा, हिंसा न भवति अर्थात विवेकपूर्वक की हुई हिंसा नहीं है । जिह्वा की चाटुकारिता के लोभ में निरपराध और उपयोगी पशु-पक्षियों का माँस खाने के लिए उनकी गरदन पर छुरी चलाना पातक है । अपने अनुचित स्वार्थ की साधना के लिए निर्दोष व्यक्तियों को दुःख देना हिंसा है । किन्तु निःस्वार्थ भाव से लोक-कल्याण के लिए तथा उसी प्राणी के उपकार के लिए यदि उसे कष्ट दिया जाय तो वह हिंसा नहीं वरन् अहिंसा ही होगी ।
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डॉक्टर निःस्वार्थ भाव से रोगी की वास्तविक सेवा के लिए फोड़े की चीरता है, एक न्यायमूर्त जज समाज की व्यवस्था कायम रखने के लिए डाकू का फाँसी की सजा का हुक्म देता है एक धर्म प्रचारक अपने जिज्ञासु साधक को आत्म-कल्याण के लिए तपस्या के कष्टकर मार्ग में प्रवृत्त करता है । मोटी दृष्टि से देखा जाय तो वह सब हिंसा जैसा प्रतीत होता है पर असल में यह सच्ची अहिंसा है । गुण्डे बदमाशों को क्षमा कर देने वाला, हरामखोरों को दान देने वाला, दुष्टता को सहन करने वाला, देखने में अहिंसक सा प्रतीत होता है पर असल में वह घोर पातक, हिंसक, हत्यारा है । वह एक प्रकार से अनजाने में दुष्टता की जहरीली बेल को सींचकर दुनिया के लिए प्राण घातक फल उत्पन्न करने में सहायक बनता है, ऐसी अहिंसा को जड़ बुद्धि अज्ञानी की अहिंसा कह सकते हैं ।
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पातंजलि योग दर्शन के पाद 2 सूत्र 35 में कहा गया है कि-अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ बैर त्यागः अर्थात अहिंसा की साधना से उस योगी के निकट-मन में से बैर भाव निकल जाता है । बैर-भाव, द्वेष, प्रतिशोध की दृष्टि से किसी के चित्त को दुःखाना या शरीर को कष्ट देना सर्वथा अनुचित है, इस हिंसा से सावधानी के साथ बचना चाहिए । अहिंसक का अर्थ है प्रेम का पुजारी, दुर्भावना से रहित । सद्भावना और विवेक बुद्धि से यदि किसी को कष्ट देना आवश्यक जान पड़े तो अहिंसा की मर्यादा के अन्तर्गत उसी गुंजायश है । अहिंसक को बैर-भाव छोड़ना होता है, क्रोध पर काबू करना होता है, निजी हानि-लाभ की अपेक्षा कुछ ऊँचा उठना पड़ता है, उदार, निष्पक्ष और न्यायमूर्त बनना पड़ता है, तब उस दृष्टिकोण से जरा भी निर्णय किया जाय वह अहिंसा ही होगी । परमार्थ के लिए की हुई हिंसा को किसी भी प्रकार अहिंसा से कम नहीं ठहराया जा सकता है ।
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महात्मा गाँधी का कथन है कि-अहिंसा से हम जगत को मित्र बनाना सीखाते हैं, ईश्वर की-सत्य की महिमा अधिकाधिक जान पड़ती है, संकट सहते हुए भी शांति और सुख में वृद्धि होती है, हमारा साहस-हिम्मत बढ़ती है । हम कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार सीखते हैं । अभिमान दूर होता है, नम्रता बढ़ती है । परिग्रह सहज ही कम होता है और देह के अन्दर भरा हुआ मैल रोज कम होता जाता है । अहिंसा कायरों का नहीं वीरों का धर्म है । बैर त्याग कर, प्रेम भावना को ,आत्मीयता को, प्रमुख स्थान देते हुए, बुराई का मुकाबला करना अहिंसा है । बहादुरी, निर्भीकता, स्पष्टता, सत्यनिष्ठा,इस हद तक बढ़ा लेना कि तीर तलवार उसके आगे तुच्छ जान पड़ें, अहिंसा की साधना है । शरीर की नश्वरता को समझते हुए, उसके न रहने का अवसर आने पर विचलित न होना अहिंसा है । अहिंसक की दृष्टि दूसरों को सुख देने की होती है, अधर्म और अज्ञान को हटाने से ही दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति हो सकती है । अहिंसा का पुजारी अपने और दूसरे के अधर्म और अज्ञान को हटाने का अविचल भाव से प्रबलतम प्रयत्न करता है जिससे सच्चा और स्थायी सुख प्राप्त हो, इस महान कार्य के लिए यदि अपने को या दूसरों को कुछ कष्ट सहना भी पड़े तो उसे उचित समझकर अहिंसक उसके लिए सदा तैयार ही रहता है ।
  
सत्य मोटे तौर से जो बात जैसी सुनी है उसे वैसी ही कहना सत्य कहा जाता है । किन्तु सत्य की यह परिभाषा बहुत ही अपूर्ण और असमाधानकारक है । सत्य एक अत्यन्त विस्तीर्ण और व्यापक तत्व है । वह सृष्टि निर्माण के आधार स्तम्भों में सब से प्रधान है । सत्य भाषण उस महान सत्य का एक अत्यन्त छोटा अणु है, इतना छोटा जितना समुद्र के मुकाबले में पानी की एक बूँद ।
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*पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य*
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हँसने के फायदे

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हँसने के पाँच फायदे

               आज की भाग दौङ भरी जिंदगी, ऊपर से काम का प्रेशर हममे में से कई लोगों को तो याद भी न होगा कि पिछली बार कब खिलखिला कर हँसे थे। जबकी हँसना हम सभी के लिये अति महत्वपूर्ण है किन्तु हम उसे नजर अंदाज कर देते हैं। मित्रों हँसने से हमारी जिंदगी किस तरह स्वस्थ एवं खुशनुमा हो सकती है उसी के बारे में थोङी सी जानकारी शेयर करने की कोशिश कर रही हूँ , पसन्द आए तो हँसियेगा जरूर. तो आइये जानते हैं हंसने के पाँच फायदे:

1)  हंसने से हद्रय की एक्सरसाइज हो जाती है। रक्त का संचार अच्छीतरह होता है। हँसने पर शरीर से एंडोर्फिन रसायन निकलता है, ये द्रव्य  ह्रदय को मजबूत बनाता है। हँसने से हार्ट-अटैक की संभावना कम हो जाती है।

2) एक रिसर्च के अनुसार ऑक्सीजन की उपस्थिती में कैंसर कोशिका और कई प्रकार के हानिकारक बैक्टीरिया एवं वायरस नष्ट हो जाते हैं। ऑक्सीजन हमें हँसने से अधिक मात्रा में मिलती है और  शरीर का प्रतिरक्षातंत्र भी मजबूत हो जाता है।

3) य़दि सुबह के समय हास्य ध्यान योग किया जाए तो दिन भर प्रसन्नता रहती है। यदि रात में ये योग किया जाये तो नींद अच्छी आती है। हास्य योग से हमारे शरीर में कई प्रकार के हारमोंस का स्राव होता है, जिससे मधुमेह, पीठ-दर्द एवं तनाव से पीङित व्यक्तियों को लाभ होता है।

4) हँसने से सकारत्मक ऊर्जा भी बढती है, खुशहाल सुबह से ऑफिस का माहौल भी खुशनुमा होता है। तो दोस्तों, क्यों न हम सब दो चार चुटकुले पढ कर या सुनकर अपने दिन की शुरुवात जोरदार हँसी के साथ करें।

5) रोज एक घंटा हँसने से 400 कैलोरी ऊर्जा की खपत होती है, जिससे मोटापा भी काबू में रहता है। आज कल कई हास्य क्लब भी तनाव भरी जिंदगी को हँसी के माध्यम से दूर करने का कार्य कर रहे हैं।

दोस्तों प्रकृति भी हमें संदेश देती है- बारिश के बाद खिली धूप, खिला हुआ फूल, लहलहाते हरे भरे पेङ अपनी खुशी का एहसास दिलाते हैं। उनकी इसी खुशी को देख कर हम सब का मन भी खुश होता है, उसी तरह जब हम सब खुश एवं स्वस्थ रहेंगे तो अपने आसपास का वातावरण भी खुशनुमा बना सकते हैं। कहते हैं Health is above wealth”.

सोचिये अगर जरा सी मुस्कान से फोटो अच्छी आ सकती है तो खुलकर हँसने से जिंदगी की तस्वीर कितनी खूबसूरत हो सकती है। मित्रों जब स्वास्थ और सामाजिक क्षेत्र में हँसी के अनगिनत फायदें हैं, तो हँसना तो लाजमी है।