कर्मयोग का अर्थ
कर्म शब्द संस्कृत के ‘कृ’ धातु में ‘अन्’ प्रत्यय लगककर बना है , जिसका
अर्थ है - क्रिया , व्यापार , हलचल , प्रारब्ध तथा भाग्य आदि।
सभी क्रियायें कर्म नही कहलाती हैं, जिनके साथ हमारा भाव और संकल्प , इच्छााएं और भावनाएॅ जुडे होते है वे ही कर्म कहलाती है।
परिभाशा -
श्रीमदभग्वद्गीता 2/50 - बुद्धियुक्तो जहातिह उभे सुकृतदुश्कृते ।
तस्मातद्योगाय युज्यसव योगः कर्मसु कौशलम्।
अर्थात - समबुद्धि युक्त पुरूश पुण्य और पाप दोनो को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योग मेेंल ग जा , यह समत्व रूप् योग ही कर्मो की कुषलता है अर्थात कर्मबंधन से छूटने का उपाय है।
पं श्रीराम शर्मा - ‘‘ जिसमे स्वार्थ और परमार्थ , लोक और परलोक संसार की सेवा आत्म कल्याण दोनो का समावेष समान रूप् से होता है तथा अपने कर्तव्य के प्रति तल्लीनता तथा विशय जन्य भावनाओं के प्रति निरासक्ति ही कर्मयोग है।’’
‘‘ कुषलता के साथ कर्तापन का अभिमान छोड कर कर्म किया जाए और उसके फल में निर्लिप्त निस्पृह अथवा अनासक्त रहा जाए , जिससे न तो सफलता का अभिमान हो न असफलता में निराषा अथवा निरूत्साह ।’’
स्वामी विवेकानंद के अनुसार - ‘‘ स्वार्थ से उपर उठकर कुछ ष्षस्त्र सम्मत एवं कुछ नैतिक दृश्टि से ष्षुभ कर्मो में मन को निरंतर नियुक्त किये रहना कर्मयोग है।’’
स्वामी आत्माानन्द -‘‘ जब कर्म अपने लिये न करके दूसरो के हित के किया जाता है, त बवह कर्मयोग कहलाता है।
’’शकराचार्य के अनुसार -‘‘कर्मयोग ज्ञान प्राप्ति का साधन मात्र हेै वह परमार्थ की प्राप्त का अलग से स्वतंत्र मार्ग नही है।’’सभी क्रियायें कर्म नही कहलाती हैं, जिनके साथ हमारा भाव और संकल्प , इच्छााएं और भावनाएॅ जुडे होते है वे ही कर्म कहलाती है।
परिभाशा -
श्रीमदभग्वद्गीता 2/50 - बुद्धियुक्तो जहातिह उभे सुकृतदुश्कृते ।
तस्मातद्योगाय युज्यसव योगः कर्मसु कौशलम्।
अर्थात - समबुद्धि युक्त पुरूश पुण्य और पाप दोनो को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योग मेेंल ग जा , यह समत्व रूप् योग ही कर्मो की कुषलता है अर्थात कर्मबंधन से छूटने का उपाय है।
पं श्रीराम शर्मा - ‘‘ जिसमे स्वार्थ और परमार्थ , लोक और परलोक संसार की सेवा आत्म कल्याण दोनो का समावेष समान रूप् से होता है तथा अपने कर्तव्य के प्रति तल्लीनता तथा विशय जन्य भावनाओं के प्रति निरासक्ति ही कर्मयोग है।’’
‘‘ कुषलता के साथ कर्तापन का अभिमान छोड कर कर्म किया जाए और उसके फल में निर्लिप्त निस्पृह अथवा अनासक्त रहा जाए , जिससे न तो सफलता का अभिमान हो न असफलता में निराषा अथवा निरूत्साह ।’’
स्वामी विवेकानंद के अनुसार - ‘‘ स्वार्थ से उपर उठकर कुछ ष्षस्त्र सम्मत एवं कुछ नैतिक दृश्टि से ष्षुभ कर्मो में मन को निरंतर नियुक्त किये रहना कर्मयोग है।’’
स्वामी आत्माानन्द -‘‘ जब कर्म अपने लिये न करके दूसरो के हित के किया जाता है, त बवह कर्मयोग कहलाता है।
डाॅ. सर्वपल्ली राधकृश्णन के अनुसार - ‘‘ कर्मयोग जीवन के लक्ष्य तक पहुचने की एक वैकल्पिक पद्धति है औश्र इससे अन्तज्र्ञान होता है।’’